वो जो रात थी
स्याह काली ज़ुल्फ़ों सी
उलझनों में अटकी हुई
जो शाम की बहकती डोर भागती रोशनी
को ढककर देकर भगाती हुई सी लग रही थी
कुछ तेरी ही तरह थी
जैसे तू
जैसे तू नाव में बैठकर
हर रोज़ जैसे
एक नया साहिल ढूंढने निकल पड़ती थी
पर ये जो गंगा है ना
वो भी कम नहीं थी
संगम के बीचों बीच जब तेरी नाव
जमुना से गंगा की लहरों पर
उसके पानी के वेग से
अठखेलियां सी खेलती थी
तब अहसास होता था
की कितना जटिल है
इस पर काबू पाना
तब बस इल्म मात्र होता था
कि शंभू में क्या तेज होगा
की जटा में इसे धारण किये बैठे थे
हम नतमस्तक होकर इसे नमस्कार कर
अगले ही पल
किनारे हो लेते हैं
कुछ समय किनारे पर बिताते हैं
इसकी लहरें शांत दिखती हैं
और अपने न होने का आश्वासन देती हैं
पर हम तो सीख चुके थे
हाथ जोड़कर किनारे तक पहुंचने की गुहार लगा देते हैं
माँझी उल्टी दिशा में चप्पू मारता हुआ
जब पूरब की ओर चलता है
तो दुनिया जैसे पश्चिम की ओर
भागती नज़र आती है
कुछ अलग ही एकांत है यहाँ
लोग हैं
पर शोर जैसे गायब है
श्रद्धा है
पर हर हर महादेव
या फिर हर हर गंगे का उदघोष नदारद है
जो मन को एक अटूट शांति देता है
वापसी का वक़्त आया
तो वादा कर ही बैठे
कि एक दफ़ह
फिर आएंगे।।