यूँ ही नींद में कभी कभी
तेरा ख्वाब सरीखा आ जाना
रहना कुछ लम्हा आँखों में
और पल्खें खुलते ही
पंछी सा फ़ुर्र हो जाना
साज़िश है, साज़िश है
कभी कभी बेबाक़ी से
दिन के यूँ मध्य में
खयाल का तेरा यूँ उमड़ आना
चाहत का मेरी उफ़न आना
सामने तेरा न होना
जानकर मेरा बिफ़र जाना
फ़िर एक दफ़ह तेरा
अक्स का आँखों में उतर आना
साज़िश है, साज़िश है
“दूर हो तो पास लगती है तू
ज़मीनी है
पर न जाने क्यों
कुछ खास है तू”
ये अहसास तेरा करवा जाना
हिज्र की रातों में
अधूरी कसक बन रह जाना
और अगली सहर
फ़िर वो तेरा
नामुराद ख़याल का
आंखों में उतर आना
साज़िश है, साज़िश है
हमें बहकाने की।।
साज़िश है
हमें बरगलाने की
साज़िश है।।