ज़हन कुरेदता है
कभी कभी
यूं जो
यादों के तेहखानों में
कैद चिट्ठियां रखी हैं कहीं
बरसों हुए उन्हें धूप लगे
नजरबंद हैं जाने कबसे
बेजान एक चारदीवारियों के बीच
जहां धूप निकली है
ना सुबह ही होती है
होती है तो बस एक आहट
जो आने वाले की यादें
ऐसे बिखेर देती है चौखट पर
कि उम्मीद अगर पूरी ना हो
तो मन रूस जाता है
वो ज़हन की चौखटें
बेसब्र हैं आज
क्यूं की
दीदार में बस
चंद लम्हों का फांसला है
उसके बाद क़यामत आ भी जाए
तो कोई गम नहीं।
कोई गम नहीं।।